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न दुख दो न दुख लो





हम सभी अपने जीवन के नियंत्रक हैं। जैसे कि अपने शरीर, अपने विचार, और अपने सभी अंगों के। हम ही आने मस्तिष्क द्वारा अपने सभी अंगों को आदेश देते हैं जैसे कि आंख, कान, नाक, मुँह और यहाँ तक कि जुबान।

कहा गया है आने वैसा ही व्यवहार दूसरों से करो जैसा आप उनसे अपने लिए चाहते हो।

क्रिया प्रतिक्रिया के सिद्धांत के अनुसार हम जो भी कार्य करते हैं उसका फल अवश्य मिलता है। चाहे वो अच्छा हो या बुरा। तो हमे ऐसे कर्म करने है जिसका फल सिर्फ अच्छा ही हो। उसके लिए ध्यान रखना है कि हमारी वजह से किसी को भी दुख न पहुँचे। चाहे मनसा, चाहे वाचा, चाहे कर्मणा । जी हां, यदि हम मनसा से भी किसी को दुख देते हैं, अर्थात मनसा में किसी के लिए नकारात्मक विचार रखते हैं, या किसी का बुरा चाहते हैं, उसका भी फल हमे मनसा भोगना द्वारा मिलता है। और हम अक्सर मन ही मन मे दुखी होते हैं। तो किसी को भी दुख देने का संकल्प भी न आये।

ये तो हो गया हमारी तरफ से किया गया व्यवहार। लेकिन कभी कभी दूसरे हमसे ऐसा व्यवहार करते हैं जो हमने कभी नही किया तब क्या करना चाहिए? या हमे कोई दुख देता है तब क्या करना चाहिए?

उदाहरण के लिये, यदि हमें कोई चीज़ देता है, जोकि हमारे काम की नही है, बेकार है, तब हम क्या करेंगे? क्या हम उसे स्वीकार करेंगे? नही न। ठीक वैसे ही जब हमे कोई दुख देता है अर्थात दुख देने वाले बोल बोलता है तब हमें उसे स्वीकार नही करना है।
हमे दुख तभी महसूस होगा जब हम उसके द्वारा बोले गए शब्दों को स्वीकार कर लेते हैं। जब हमने अंदर लिया ही नही, तो दुख की महसूसता आएगी ही नही।
और जब हम दुखी नही होंगे तब हम प्रतिक्रिया नही देंगे। और बात वही खत्म हो जाएगी।

क्योकि अब हमारा रिमोट हमारे ही हाथ मे है।



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